आज तक के इतिहास में अगर त्याग की या बलिदान की मिसाल दी जाये तो श्री गुरू गोबिंद सिंह जी से बड़ा कोई त्यागी या बलिदानी नहीं हो सकता। श्री गुरू गोबिंद सिंह जी ने देश को और कौम को बचाने के लिये अपने चार बेटों और पिता को कुर्बान कर दिया। गुरू जी ने देश और धर्म के लिये मुगलों या उनके सहयोगियों के साथ 14 युद्ध लड़े। धर्म के लिए समस्त परिवार का बलिदान उन्होंने किया। जिसके लिए उन्हें ‘सरबंसदानी’ भी कहा जाता है। इसके अलावा गुरू जी कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले आदि कई नाम, उपनाम और उपाधियों से भी जाने जाते हैं। श्री गुरू गोबिंद सिंह जी ने बैसाखी वाले दिन खालसा पंथ की स्थापना की । आज दुनिया भर में श्री गुरू गोबिंद सिंह जी का जन्मदिवस मनाया जा रहा है और दुनिया भर के गुरूद्वारों को सजाया गया है।
गुरू जी एक महान लेखक, मौलिक चिंतक और कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रंथों की रचना की। उन्हें ‘संत सिपाही’ भी कहा जाता था। उन्होंने सदा प्रेम, एकता, भाईचारे का संदेश दिया। किसी ने गुरुजी का अहित करने की कोशिश भी की तो उन्होंने अपनी सहनशीलता, मधुरता, सौम्यता से उसे परास्त कर दिया। गुरु जी की मान्यता थी कि ना किसी पर जुल्म करना चाहिये और ना ही जुल्म को सहना चाहिए। वे अपनी वाणी में उपदेश देते हैं ‘भै काहू को देत नहि, नहि भय मानत आन’। वे बचपन से ही सरल, सहज, भक्ति-भाव वाले कर्मयोगी थे। उनकी वाणी में मधुरता, सादगी, सौजन्यता एवं वैराग्य की भावना कूट-कूटकर भरी थी। उनके जीवन का प्रथम दर्शन ही था कि धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग है और सत्य की सदैव विजय होती है।
कश्मीरी पंडितों का जबरन धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बनाये जाने को लेकर कश्मीरी पंडित शिकायत लेकर श्री गुरू तेगबहादुर जी के पास पहुंचे। तब कश्मीरी पंडितों को जबरन मुस्लमान बनाने से रोकने के लिये श्री गुरू गोबिंद सिंह जी के कहने पर खुद श्री गुरू तेगबहादुर जी शीश देने के लिये तैयार हो गये। तब 11 नवंबर 1675 को दिल्ली के चांदनी चौक में श्री गुरू तेग बहादुर जी ने शीश देकर मुगल साम्राज्य की नींव हिला दी। उसके बाद 29 मार्च 1676 को श्री गुरू गोबिंद सिंह जी सिक्ख कौम के दसवें गुरू बने।
गुरु गोबिंद सिंह जी का नेतृत्व सिख समुदाय के इतिहास में बहुत कुछ नया ले कर आया। उन्होंने सन 1699 में बैसाखी के दिन खालसा पंथ की स्थापना की। सिख समुदाय की एक सभा में उन्होंने सबके सामने पूछा “कौन अपने सर का बलिदान देना चाहता है”? उसी समय एक स्वयंसेवक इस बात के लिए राज़ी हो गया और गुरु गोबिंद सिंह जी उसे तम्बू में ले गए और कुछ देर बाद वापस लौटे एक खून लगे हुए तलवार के साथ। गुरु जी ने दोबारा लोगों से वही सवाल पूछा और उसी प्रकार एक और युवक राज़ी हुआ और उनके साथ गया पर वे तम्बू से जब बाहर निकले तो खून से सना तलवार उनके हाथ में था। उसी प्रकार पांचवा स्वयंसेवक जब उनके साथ तम्बू के भीतर गया, कुछ देर बाद गुरु गोबिंद सिंह सभी जीवित सेवकों के साथ वापस लौटे और उन्होंने उन्हें पंज प्यारे या पहले खालसा का नाम दिया। श्री गुरू गोबिंद सिंह जी ने सिखों के पवित्र ग्रंथ श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी को पूरा किया और उन्हें गुरू के रूप में सुशोभित किया। उसके बाद से श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी को ही गुरू माना जाता है।
वाहेगुरू जी का खालसा श्री वाहेगुरू जी की फतेह……..